वर्तमान कट्टरपंथियों जैसी तथाकथित ‘घर-वापसी’ के सख़्त विरुद्ध थे गांधी जी
सभी धर्मों में एकता के मुद्दई व अस्पृश्यता के विरुद्ध थे गांधी जी
तामिल नाडू के पहाड़ी नगर पोल्लाची में 7 फ़रवरी, 1934 को एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी जी ने कहा था कि विभिन्न धर्मों को एक-दूसरे से घृणा का भाव नहीं रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक धर्म का व्यक्ति अन्य धर्म के व्यक्ति के प्रति अस्पृश्यता (अछूतपन या असहनशाीलता) का भाव रखता है, यह ग़लत है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘अस्पृश्यता का भाव केवल एक जाति के व्यक्ति का अन्य जाति के व्यक्ति के प्रति ही नहीं है, अपितु मुसलमानों, ईसाईयों एवं यहूदियों के अपने स्वयं की बीच भी पाया जाता है। ऐसी ग़लतियां हमारी धरती पर से हटा दी जानी चाहिएं।’ 11 अप्रैल, 1934 को उन्होंने असम के रूपसी नामक स्थान पर एक सार्वजनिक सभा को संबोधन करते हुए कहा,‘‘सभी जातियों में यह बात सामान्यतः आम पाई जाती है कि वे स्वयं को अन्य जातियों से बढ़िया एवं सर्वोच्च मानते हैं और दूसरे लोगों को किसी न किसी बहाने व ढंग से अछूत मानते हैं। यदि हम यह अछूतपन या अस्पृश्यता को अपने मन से निकाल देंगे, तो यह ऊँच-नीच की भावना समाप्त हो जाएगी और सभी एक ही परमेश्वर के बच्चे होंगे और वही मनुष्य का असली भाईचारा भी होगा।’’ एक अन्य अवसर पर उन्होंने भारत की जनता से यह स्वाल भी कहा था कि ‘क्या यह बहुत बुरी बात नहीं है कि यदि हमें कोई मुसलमान या एक ईसाई व्यक्ति छूह लेता है, तो उस बात को अस्वच्छ मानते हैं, चाहे वह व्यक्ति कितना भी सच्चा-सुच्चा, परमेश्वर से डरने वाला, विशुद्ध, वीर एवं बलिदानी ही क्यों न हो?’
कभी किसी को ज़बरदस्ती ईसाई बनाया ही नहीं जा सकता
भारत में प्रायः इस बात पर बहस छिड़ी रहती है कि कुछ ग़रीब लोगों को ज़बरदस्ती ईसाई बनाया जा रहा है। जबकि एक सच्चे मसीही प्रचारक के लिए कभी ऐसा संभव ही नहीं है कि वह किसी पर ज़ोर-ज़बरदस्ती करे, क्योंकि इससे तो यीशु मसीह का सन्देश ही धूमिल हो जाएगा। फिर मसीही समुदाय कैसे यह प्रचार कर सकता है कि ‘यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसके आगे दूसरा भी कर दो’ - इतनी अधिक विनम्रता तो और कहीं भी देखने को नहीं मिलती। मसीही धर्म की तो नींव ही एक-दूसरे से प्रेम रखने व सदभावनापूर्ण ढंग से रहने पर टिकी हुई है। बाईबल में सैंकड़ों स्थानों पर विश्वासी व्यक्ति को सदा विनम्र रहने, अहंकार से दूर रहने, सब्र या संयम रखने, अन्य लोग जिन्हें ‘निम्न’ या ‘नीच’ मानें - उनका साथ देने की ही शिक्षा दी गई है। इस मुद्दे पर हम पहले भी कई बार विस्तारपूर्वक चर्चा कर चुके हैं। गांधी जी ने भी इस मुद्दे पर अपनी काफ़ी टिप्पणियां की थीं।
भारत में आम लोगों के ईसाई बनने से चिंतित थे गांधी जी
गांधी जी कभी नहीं चाहते थे कि कभी किसी का धर्म-परिवर्तन किया जएं, क्योंकि सभी धर्मों के लोग उनकाा बहुत आदर करते थे। उनका मानना था कि कभी किसी व्यक्ति को अपना धर्म परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। उनके समय में बहुत से लोगों ने सदा के लिए ईसाई धर्म को ग्रहण किया था परन्तु उन्हें सदा यह संदेह बना रहा कि उन लोगों ने किसी आध्यात्मिक विश्वास के कारण यीशु मसीह को ग्रहण किया है या किसी अन्य कारण से। 1926 में गांधी जी ने न्यूयार्क (अमेरिका) के मसीही प्रचारक जौन रैले मौट्ट (जिन्हें 1946 में नोबल शांति पुरस्कार भी जीता था) से बातचीत के दौरान कहा था,‘‘मुझे एक बार एक मसीही गांव में ले जाया गया था। मैं वहां पर कुछ ऐसे नए मसीही लोगों से मिला, जिन्होंने स्वयं में आध्यात्मिक परिवर्तन महसूस किया था। परन्तु मैंने उनमें कुछ झिजक देखी। वे लोग प्रश्नों के उत्तरों को टाल रहे थे। वे बात करने से डर रहे थे। तब मुझे लगा कि यह सब बेहतरी के लिए नहीं परन्तु कुछ बुरे के लिए हुआ है।’’ फिर 1936 में जब एक मसीही प्रतिनिधि मण्डल उन्हें बंगलौर में मिला था तो उन्होंने कहा था,‘‘दबे-कुचले लोगों द्वारा ईसाई धर्म को ग्रहण करने के मुद्दे का समाधान हिन्दु स्वयं ढूंढ लेंगे। यह अछूत लोगों में अचानक ही आध्यात्मिक अर्थात रूहानी भूख के प्रति जागरूकता कैसे उत्पन्न होने लगी है और तब एक परिस्थिति विशेष का शोषण करने का प्रयत्न किया जाता है। ग़रीब दलितों का अपना कोई दिमाग़ नहीं होता, कोई समझ-बूझ नहीं होती, वे ऐसी बातें नहीं कर सकते कि परमात्मा है या नहीं है।’’
वर्तमान कट्टरपंथी यदि गांधी जी की जूती की धूल के एक कण के समान ही बन पाएं, तो बड़ी बात होगी
4 मई, 1934 को जमशेदपुर (अब झारखण्ड में) में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान एक पत्रकार ने उन्हें प्रश्न किया कि जो कुछ कबाईली लोग अभी हाल ही में ईसाई बने हैं, क्या उन्हें अपने मूल धर्म में वापिस (आज के कुछ मुट्ठीभर कट्टर हिन्दुवादी नेताओं के अनुसार ‘घर-वापसी’) लाने के प्रयत्न किए जाएंगे, तो उन्होंने तत्काल उत्तर दिया था कि वह ऐसी किसी कार्यवाही के लिए सोच भी नहीं सकते। उनमें से अधिकतर लोग तो वाजिब तौर पर मसीही हैं। जो लोग ईमानदारी से धर्म-परिवर्तन करके मसीहियत में शामिल हो गए हैं, उन्हें अपने धर्म फलने-फूलने की अनुमति दी जानी चाहिए तथा जिन्हें अभी कुछ संशय हैं, वे धीरे-धीरे हिन्दु धर्म में पुनः स्वयं ही लौट आएंगे। ऐसी थी गांधी जी की सोच। आज के तथाकथित राष्ट्रवादी व फोकी नारेबाज़ी की राजनीति करने वाले कुछ मुट्ठीभर कट्टरपंथी लोग दरअसल देश में शांति कायम रखना ही नहीं चाहते हैं। धर्म-निरपेक्षता एवं सांप्रदायिक सौहार्द क्या होता है, उसका हमारे देश में कितना महत्त्व है, वे लोग इन बातों को शायद आगामी कई जन्मों तक भी समझ नहीं पाएंगे। ऐसे लोग गांधी जी की जूती की धूल के एक कण के बराबर ही बन जाएं, तो भी बहुत बड़ी बात होगी।
भारत के कुछ मसीही लोगों को यूरोपियन संस्कृति अपनाते देख दुःखी होते थे गांधी जी
गांधी जी इस बात से काफ़ी ख़्फ़ा होते जब वह भारत के ईसाईयों को भारतीय रहन-सहन के स्थान पर यूरोपियन शैली अपनाते हुए देखते थे। दक्षिण अफ्ऱीका में उन्होंने बहुत से भारतीय मसीही लोगों को यूरोपियन संस्कृति को अपनाते देखा था। वह इसको विकृत मानसिकता कहा करते थे। वह भारतीय ईसाईयों द्वारा गोरे यूरोपियनों की नकल करके जीवन व्यतीत करने को सही नहीं मानते थे। इस मुद्दे पर भी उन्होंने 29 अगस्त, 1925 को बंगाल क्रिस्चियन कान्फ्ऱेंस को संबोधित करते हुए मसीही लोगों को काफ़ी समझाया था। इससे पूर्व भी 12 अगस्त, 1925 को उन्होंने कलकत्ता में ‘यंग मैन’ज़ क्रिस्चियन ऐसोसिएशन’ (वाई.एम.सी.ए.) के एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था भारत के मसीही युवाओं को स्वर्गीय माईकल मधुसूदन दत्त, काली चरण बैनर्जी तथा सुशील कुमार रुद्र जैसे लोगों की शानदार उदाहरणों से कुछ सीखना चाहिए। ये सभी लोग अपनी मातृ-भाषा को प्यार करते थे तथा इन मसीही स्वतंत्रता सेनानियों का रहन-सहन विशुद्ध रूप से भारतीय था।
गांधी जी नहीं चाहते थे मसीही समुदाय भारत में अलग-थलग पड़े
गांधी जी ने संपूर्ण ईसाई समुदाय को यह सुझाव दिया था कि वह भारतीय समाज में अलग-थलग न पड़ें परन्तु देश के अन्य करोड़ों लोगों की इच्छाओं व मनोभावनाओं को समझें। उन्होंने मसीही युवाओं को यह सलाह भी दी थी कि वे गांवों में जाएं, वहां के नागरिकों की इच्छाओं का अध्ययन करें और उन्हें संतुष्ट करने का प्रयत्न करें।
विलियम डब्लयु ऐमिलसन ने एक पुस्तक लिखी थी,‘‘गांधी’ज़ बाईबल’’ (गांधी की बाईबल), उसमें गांधी जी के ईसाई अर्थात मसीही धर्म संबंधी बहुत से टिप्पणियां दी गई हैं। उसमें बताया गया है कि गांधी जी ने एक बार कहा था कि ‘‘यदि एंग्लो-इण्डियन्ज़ यूरोपियनों की नकल करते हैं, तो यह उनके लिए बुरी बात है परन्तु यदि भारत में धर्म-परिवर्तित करके मसीही बने लोग अंग्रेज़ों की नकल करते हैं तो यह उनके अपने देश के प्रति हिंसा के समान है। बाईबल के नए नियम (रोमियों की पत्री के 14वें अध्याय की 21वीं आयत तथा कुरिन्थियों की पहली पत्री के 8वें अध्याय की 13वीं आयत) में बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है कि यदि तुम्हारे किसी भाई को ठेस पहुंच सकती है, तो मास अर्थात मीट नहीं खाना चाहिए और शराब भी नहीं पीनी चाहिए। .... मैंने देखा है कि जो बहुत से भारतीय लोग नए-नए मसीही बने हैं, उन्हें अब अपने जन्म के धर्म से शर्म आने लगी है और वे अब अपनी पैतृक पोशाक भी नहीं पहनते हैं। धर्म परिवर्तन का अर्थ ‘विराष्ट्रीयकरण’ (अपने राष्ट्र या देश से दूर होना) नहीं है। इस परिवर्तन का अर्थ तो यह होना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने देश के प्रति और भी अधिक समर्पित हो जाए, और अधिक परमेश्वर को मानने लगे तथा और भी अधिक विशुद्ध हो जाए।’’
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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